इलाहाबाद हाईकोर्ट ने डिजिटल युग में किशोरों के मानसिक और सामाजिक विकास पर गंभीर चिंता जताई है. कोर्ट ने एक आपराधिक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि टीवी, इंटरनेट और सोशल मीडिया जैसे प्लेटफॉर्म बच्चों की मासूमियत को कम उम्र में ही छीन रहे हैं. इससे उनका स्वाभाविक और नैतिक विकास बाधित हो रहा है.
कोर्ट ने चेतावनी दी कि डिजिटल सामग्री बच्चों में असमय परिपक्वता, अनुशासनहीनता और अपराध के प्रति आकर्षण पैदा कर रही है.
हर स्क्रीन पर निगरानी असम्भव
हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि डिजिटल माध्यमों की प्रकृति ऐसी है कि सरकार के लिए इन पर पूर्ण नियंत्रण लगभग असंभव है. हर स्क्रीन पर निगरानी या हर सामग्री पर सेंसर लगाना व्यावहारिक नहीं है. डिजिटल दुनिया की पहुंच हर सीमा से परे है, जो बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरा बन रही है. कोर्ट ने कहा कि पहले बचपन नैतिकता, संस्कार और मासूमियत से भरा होता था, लेकिन अब तकनीक ने इसकी जगह ले ली है.
बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान
सोशल मीडिया और इंटरनेट पर उपलब्ध अनुचित सामग्री बच्चों की समझदारी और मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रही है. कोर्ट ने इस समस्या के समाधान के लिए समाज और परिवार की भूमिका को अहम बताया. केवल सरकार पर निर्भर रहने के बजाय, अभिभावकों, शिक्षकों और समाज को मिलकर बच्चों को डिजिटल खतरों से बचाना होगा.
अभिभावक बच्चों के साथ समय बिताएं
माता-पिता को सलाह दी गई कि वे बच्चों के साथ समय बिताएं, उनसे संवाद करें और सही मार्गदर्शन दें. कोर्ट ने जोर दिया कि बच्चों को डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के सही उपयोग के लिए शिक्षित करना जरूरी है.
समाज और परिवार पर बड़ी जिम्मेदारी
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह बयान आज के डिजिटल युग में बच्चों के भविष्य को लेकर एक महत्वपूर्ण चेतावनी है. समाज और परिवार को यह सुनिश्चित करना होगा कि तकनीक बच्चों के विकास में बाधा न बने, बल्कि उनके उज्जवल भविष्य का साधन बने.